संजय गाँधी, पिट्स विमान और वो हादसा जिसने उनकी जान ले ली
राजीव और संजय गांधी दोनों को गति और मशीनों से गहरा लगाव था. एक और जहाँ राजीव विमानन नियमों का पालन करते थे वहीं संजय विमान को कार की तरह चलाया करते थे...
तेज़ हवा में कला बाज़ियाँ खाना उनका शौक हुआ करता था. 1976 में उन्हें हल्के विमान उड़ाने का लाइसेंस मिला था लेकिन इंदिरा गाँधी के सत्ता से हटते ही जनता सरकार ने उनका लाइसेंस छीन लिया था.
इंदिरा गाँधी के सत्ता में दोबारा वापस आते ही उनका लाइसेंस भी उन्हें वापस मिल गया था. 1977 से ही इंदिरा परिवार के नज़दीकी धीरेंद्र ब्रह्मचारी एक ऐसा टू सीटर विमान ‘पिट्स एस 2ए’ आयात करवाना चाह रहे थे जिसे खास तौर से हवा में कलाबाज़ियां खाने के लिए बनाया गया हो.
मई 1980 में जाकर भारत के कस्टम विभाग ने उसे भारत लाने की मंज़ूरी दी. आनन फानन में उसे असेंबल कर सफ़दरजंग हवाई अड्डे स्थित दिल्ली फ़्लाइंग क्लब में पहुँचा दिया गया.
संजय पहले ही दिन उस विमान को उड़ाना चाह रहे थे लेकिन पहला मौका फ़्लाइंग क्लब के इंस्ट्रक्टर को मिला. संजय ने पहली बार 21 जून 1980 को नए पिट्स पर अपना हाथ आज़माया.
दूसरे दिन यानी 22 जून को अपनी पत्नी मेनका गांधी, इंदिरा गाँधी के विशेष सहायक आरके धवन और धीरेंद्र ब्रह्मचारी को ले कर उन्होंने उड़ान भरी और 40 मिनट तक दिल्ली के आसमान पर विमान उड़ाते रहे.
पिट्स तेज़ी से मुड़ा
अगले दिन यानी 23 जून को माधवराव सिंधिया उनके साथ पिट्स की उड़ान भरने वाले थे लेकिन संजय गांधी सिंधिया के बजाए दिल्ली फ़्लाइंग क्लब के पूर्व इंस्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना के घर जा पहुँचे जो सफ़दरजंग हवाई अड्डे के बगल में ही रहते थे.
उन्होंने कैप्टन सक्सेना से कहा कि वह उनके साथ फ़्लाइट पर चलें. संजय अपनी कार पार्क करने चले गए और सुभाष अपने एक सहायक के साथ फ़्लाइंग क्लब के मुख्य भवन में पहुंचे.
वो बहुत जल्दी में नही थे और शायद इसी लिए उन्होंने एक चाय का भी ऑर्डर कर दिया. अभी उन्होंने चाय का एक घूंट ही लिया था कि उनका चपरासी दौड़ता हुआ आया और बोला कि संजय गांधी विमान में बैठ चुके हैं और उन्हें तुरंत बुला रहे हैं.
कैप्टन सक्सेना ने अपने सहायक को यह कह कर घर भेज दिया कि वो 10-15 मिनट में वापस लौट आएंगे. कैप्टन सक्सेना पिट्स के अगले हिस्से में बैठे और संजय ने पिछले हिस्से में बैठ कर कंट्रोल संभाला.
ठीक सात बजकर 58 मिनट पर उन्होंने टेक ऑफ़ किया. संजय ने सुरक्षा नियमों को दरकिनार करते हुए रिहायशी इलाके के ऊपर ही तीन लूप लगाए.
वो चौथी लूप लगाने ही जा रहे थे कि कैप्टेन सक्सेना के सहायक ने नीचे से देखा कि विमान के इंजन ने काम करना बंद कर दिया है. पिट्स तेज़ी से मुड़ा और नाक के बल ज़मीन से जा टकराया.
विमान का नीचे गिरना
कंट्रोल टॉवर में बैठे विमान को देख रहे लोगों के मुँह खुले के खुले रह गए जब उन्होंने देखा कि पिट्स अशोका होटल के पीछे एकदम से गुम हो गया. सक्सेना के सहायक ने भी तेज़ी से विमान को नीचे गिरते हुए देखा.
उसने अपनी साइकिल पकड़ी और पागलों की तरह चलाता हुआ सबसे पहले घटना स्थल पर पहुंचा. बिल्कुल नया पिट्स टू सीटर मुड़ी हुई धातु में बदल चुका था, उसमें से गहरा काला धुंआ निकल रहा था लेकिन उसमें आग नहीं लगी थी.
रानी सिंह अपनी किताब 'सोनिया गांधी एन एक्सट्राऑर्डनरी लाइफ़' में लिखती हैं, "सक्सेना के सहायक ने देखा कि संजय गंधी का शव विमान के मलबे से चार फ़िट की दूरी पर पड़ा हुआ था और कैप्टेन सक्सेना के शरीर का निचला हिस्सा विमान के मलबे में दबा हुआ था लेकिन सिर बाहर निकला हुआ था."
"ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह एक, अकबर रोड पर बैठे इंदिरा गांधी से मिलने का इंतज़ार कर रहे थे. अचानक वीपी सिंह ने सुना कि इंदिरा गांधी के सहायक आरके धवन कह रहे हैं कि बहुत बड़ा हादसा हो गया है. बिखरे हुए बालों में इंदिरा गाँधी बाहर निकलीं और धवन के साथ ऐम्बैस्डर कार में घटना स्थल के लिए रवाना हो गईं."
"उनके पीछे पीछे वीपी सिंह भी वहां पहुंचे. इंदिरा गांधी के पहुंचने से पहले ही फ़ायर ब्रिगेड ने विमान के मलबे से दोनों शव निकाल लिए थे और उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस में रखा जा रहा था."
पुपुल जयकर की किताब
रानी सिंह अपनी किताब में लिखती हैं, "इंदिरा गांधी खुद एंबुलेंस में चढ़ गईं और राम मनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचीं. वहाँ डॉक्टरों ने दोनों लोगों को मृत घोषित कर दिया."
"सबसे पहले अस्पताल पहुंचने वालों में अटल बिहारी वाजपेई और चंद्रशेखर थे. इंदिरा गाँधी ने अपनी आँखों और भावनाओं को छिपाने के लिए काला चश्मा लगा रखा था."
पुपुल जयकर अपनी किताब इंदिरा गांधी में लिखती हैं कि उनको अकेले खड़े देख वाजपेई ने आगे बढ़ कर कहा, "इंदिरा जी इस कठिन मौके पर आपको बहुत साहस से काम लेना होगा. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन वाजपेई की तरफ इस अंदाज़ से देखा मानो यह कह रही हों कि आप कहना क्या चाह रहे हैं?"
"वाजपेई थोड़े से विचलित हुए और सोचने लगे कि उन्होंने इंदिरा से यह कह कर कोई गलती तो नहीं कर दी. इसके बाद इंदिरा चंद्रशेखर की तरफ मुड़ीं और उन्हें एक तरफ ले जा कर बोलीं कि मैं कई दिनों से आपसे असम के बारे में बात करना चाह रही थी. वहाँ हालत बहुत गंभीर हैं."
"चंद्रशेखर ने कहा कि इसके बारे में बाद में बात करेंगे. इंदिरा ने जवाब दिया कि नहीं, नहीं ये मामला बहुत महत्वपूर्ण है."
"आश्चर्यचकित चंद्रशेखर की समझ में ही नहीं आया कि कि एक माँ कैसे असम के बारे में बात कर सकती है जब कि उसके बेटे का शव बगल के कमरे में पड़ा हुआ है."
वीपी सिंह को निर्देश
पुपुल जयकर की किताब के मुताबिक, "शाम को जब अटल बिहारी वाजपेई, चंद्रशेखर और हेमवतीनंदन बहुगुणा मिले तो वाजपेई ने टिप्पणी की, 'या तो उन्होंने दुख को आत्मसात कर लिया है और या फिर वो पत्थर की बनीं हैं. वो शायद यह सिद्ध करना चाह रही हैं कि इस कठिन घड़ी में भी वह असम और भारत की समस्याओं के बारे में सोच रही हैं."
अस्पताल में उनके पीछे पीछे पहुंचे विश्वनाथ प्रताप सिंह को भी देख कर उन्होंने कहा कि आप तुरंत लखनऊ लौटिए क्योंकि वहाँ पर इससे बड़े मसले हल करने के लिए पड़े हैं. जब तक डॉक्टर संजय के क्षतविक्षत शव को ठीक करने की कोशिश करते रहे इंदिरा गांधी उसी कमरे में खड़ी रहीं.
इस बीच हादसे की ख़बर सुन संजय गाधी की पत्नी मेनका गांधी अस्पताल पहुंच गईं. इंदिरा उस कमरे से बाहर निकलीं जहाँ संजय के शव को ठीक करने की कोशिश हो रही थी.
मेनका को दिलासा दिया और कहा कि वह बगल वाले कमरे में बैठ कर इंतज़ार करें. उन्होंने कैप्टन सक्सेना की पत्नी और माँ को भी दिलासा दिया.
संजय के शव को ठीक करने में डॉक्टरों को तीन घंटे लग गए. जब उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया तो इंदिरा ने उनसे कहा कि अब आप मुझे अपने बेटे के पास कुछ मिनटों के लिए अकेला छोड़ दीजिए.
वो थोड़ा झिझके लेकिन इंदिरा ने उन्हें सख़्ती से बाहर जाने के लिए कहा. ठीक चार मिनट बाद वह कमरे से बाहर निकलीं. उस कमरे में गईं जहाँ मेनका बैठी हुई थीं और उन्हें बताया कि संजय अब इस दुनिया में नहीं हैं.
'अजीब किस्म की राहत'
वो अपनी देख रेख में संजय के शव को एक अकबर रोड लाईं जहाँ उसे बर्फ़ की सिल्लियों पर एक प्लेटफॉर्म पर रखा गया. उनकी एक आँख और सिर पर अभी भी पट्टी बंधी हुई थी और नाक बुरी तरह से कुचली हुई थी.
अगले दिन संजय के अंतिम संस्कार के समय इंदिरा पूरे समय मेनका का हाथ अपने हाथ में लिए रहीं. जैसे ही चिता में आग देने के लिए राजीव ने हाथ आगे बढ़ाया, इंदिरा ने इशारे से उनसे रुकने के लिए कहा.
उन्होंने बताया कि संजय के शरीर से लिपटे काग्रेस के झंडे को हटाया नहीं गया है. शव के ऊपर रखी लकड़ियों को फिर से हटाया गया और झंडे को हटा कर संजय का अंतिम संस्कार किया गया.
25 जून को संजय की अस्थियों को घर ला कर एक अकबर रोड के लॉन में रखा गया. तब पहली बार इंदिरा अपने को रोक नहीं पाईं. उनकी आखों से आंसू बह निकले. राजीव गाँधी ने अपने हाथों से उनके कंधों और कमर को सहारा दिया.
चार दिनों के अंदर यानी 27 जून को इंदिरा साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर में फ़ाइलों पर दस्तख़त कर रही थीं जैसे कुछ हुआ ही न हो.
राज थापर ने अपनी किताब 'ऑल दीज़ इयर्स' में लिखा, "संजय की मौत पर लोग रोए और पूरा देश ग़मगीन हो गया क्योंकि यह दुखद घटना तो थी ही. लेकिन इसे विडंबना ही कहिए कि इसके साथ ही लोगों में एक अजीब किस्म की राहत भी थी जिसे पूरे भारत में महसूस किया गया..."
सालों बाद इंदिरा के चचेरे भाई और अमरीका में भारत के राजदूत रहे बीके नेहरू ने भी अपनी किताब 'नाइस गाइज़ फ़िनिश सेकेंड' में भी कमोबेश इसी भावना का इज़हार किया.
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