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Saturday, September 17, 2011
परमात्मा कैसे होते हैं?
भागवत अंक 261 में आपने पढ़ा...बाललीला में संत विनोबा भावे का विश्लेशण उपयुक्त लगता है, हम बालकों का लालन-पालन जगत की दृष्टि से करते हैं-निन्दा और प्रशंसा का भाव मन में रहता है, कितना अच्छा है कि बालकृष्ण की सेवा कर रहे यह भाव लालन-पालन में रहे तो पालकों और बालकों दोनों का कल्याण है अब आगे...
राजा निमि ने पूछा-महर्षियों! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में हैं। मुझे यह बतलाइये कि जिस परमात्मा का नारायण नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है? यहां विदेहजी परमात्मा का स्वरूप पूछ रहे हैं योगीश्वरों से। स्वरूप से तात्पर्य है कि वह परमात्मा कैसा है? वह कैसा दिखता है? उसके क्या-क्या लक्षण हैं? वह क्या-क्या करता है? आदि-आदि। इस प्रश्न में बड़ी गहराई है।
यहां पर नारायण से तात्पर्य उस परब्रह्म परमात्मा से है। पांचवे योगीश्वर पिप्लायन ने कहा- राजन जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वाला भी। जिसकी सत्ता से ही सत्तावान होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अनत:करण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप नारायण समझिये।
वास्तव में जितनी भी शक्तियां हैं चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों, सब-का-सब वह ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त है। कहां तक कहूं? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है सब कुछ ब्रह्म है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है।जब राजा निमि ने पूछा- योगीश्वरो! अब आपलोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रतिशीघ्र परम नैषकम्र्य अर्थात कर्तत्व, कर्म और कर्मफल को निवृत्त करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है। एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋ षियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था?
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