मैंने सुना था कि कोलकाता के लोग फुटबॉल के पीछे पागल रहते हैं। इसके बाद जब मुझे यह जानकारी मिली कि अमिताभ बच्चन को पहली नौकरी कोलकाता में मिली थी, तब मेरे मन में यह सवाल उठा 'अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से वाया दिल्ली होते हुए कोलकाता आए थे। गंगा किनारे रहने वाले इस छोरे को भी हुगली के किनारे बसे शहर का यह चस्का लगा कि नहीं?'
जवाब भी तुरंत मिल गया। अमिताभ ने जब भारत के इस सबसे बड़ी आबादी वाले शहर में पहली बार कदम रखा, उसी दिन वे टिकट लेकर फुटबॉल का मैच देखने निकल पड़े थे। दर्शक पागलों की तरह मोहन बागान टीम को चियर-अप कर रहे थे। इसी भीड़ में अमिताभ भी शामिल हो गए।
आज कोलकाता छूट गया है, वहां की नौकरियां, सखियां, नाटकों के सह-कलाकार... सबकुछ। लेकिन जो चीज आज भी उनसे दूर नहीं हो पाई, वह है फुटबाल के प्रति उनका अटूट लगाव।
अमिताभ बच्चन नामक सुपर स्टार के बारे में आज दुनिया भर के लोग थोड़ा-बहुत जानते ही हैं। लेकिन कोलकाता में बिताए उनके हसीन लम्हों के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते। अमिताभ ने इस शहर में 5 वर्ष का समय बिताया। और उनकी जवानी के ये श्रेष्ठ 5 वर्ष थे। मुख्य बात यह थी कि यहां वे परिजनों से दूर रहते थे। बाबूजी के संस्कार और तेजीजी के सख्त अनुृशासन की शिक्षा दिल्ली में छूट चुकी थी। अब तो युवा अमित को आगे की जिंदगी का रास्ता खुद ही बनाना था।
'बर्ड एंड हिल्जर्स' कंपनी में अमिताभ की कोयला विभाग में नियुक्ति थी। प्रतिमाह 470 रुपए की तनख्वाह हाथ में आया करती थी। कोयला विभाग का काम और अमिताभ की डिग्री बिल्कुल भी मेल नहीं खाती थी। इसके अलावा जहां भी कोयले की खदानें थीं, उन्हें वहां ट्रेनिंग के लिए जाना पड़ता था। मुख्यत: आसनसोल, धनबाद, हजारीबाग जैसे स्थलों पर उनका अक्सर आना-जाना हुआ करता था। ऐसी ही एक ट्रेनिंग के दरमियान अमिताभ खान में फंस गए थे। अचानक खान की दीवार धंस गई थी और खान में पानी भरने लगा था। लेकिन मौत के कुछ क्षण पहले ही उन्हें सुरक्षा दल ने बचा लिया।
जिन्होंने अमिताभ की फिल्म 'काला पत्थर' देखी होगी, उन्हें इस फिल्म में दर्शाया गया यह दृश्य बहुत अच्छी तरह से याद भी होगा। दरअसल यह दृश्य अमिताभ के जीवन के एक प्रसंग पर ही आधारित था।
कोलकाता में अमिताभ सन् 1963 से 1968 तक रहे। इन पांच वर्षों में उन्होंने लगभग 20 मकान भी बदले। प्रतिमाह मिलने वाली तनख्वाह वे अपने शौक में ही उड़ा दिया करते थे। सिगरेट के अलावा शराब पीना भी उनकी आदत में शुमार था।
इन 5 वर्षों की नौकरी के दरमियान अमिताभ ने कभी भी तनख्वाह से एक रुपया भी घर नहीं भेजा। इसके उलट वे तो मां-बाबूजी से खर्चे के लिए पैसे ले लिया करते थे। इसके बाद भी अमिताभ आज देश के सबसे बड़े ब्रांड एम्बेसेडर हैं। मेरे मत के अनुसार अमिताभ की प्रकृति में मौजूद दो बातों ने उन्हें आज इतनी ऊंचाई पर पहुंचा दिया है। एक तो उनका संगीत के प्रति लगाव और दूसरा अभिनय के प्रति अटूट प्रेम। खासतौर पर उत्तर भारत के लोकसंगीत की तरफ उनका झुकाव। उत्तर भारत के लोकसंगीत के प्रति झुकाव उन्हें बाबूजी से विरासत में मिला और अभिनय का शौक मां से।
किशोरावस्था में तेजी बच्चन ने कई नाटकों में जबर्दस्त अभिनय किया था। मां और बाबूजी के इन दोनों शौकों को अमिताभ ने किस तरह अपने साथ रखा, यह जानना रुचिकर है...।
नौकरी के बाद बचने वाले समय में अमिताभ ने नाटकों में भाग लेने का निश्चय किया। कोलकाता में इस समय एक 'ऐमेच्योर्स' नामक नाटक कंपनी थी। अमिताभ इस कंपनी से जुड़ गए। यहां पर अमिताभ की पहचान कमल भगत, विजयकृष्ण और डिक रोजर्स जैसे कलाकारों से हुई। प्रख्यात क्रिकेट कमन्टेटर किशोर भीमाणी भी इस नाटक कंपनी से जुड़े हुए थे। इसके अलाव यहां एक हैंडसम युवक भी था, जिसने अमिताभ को अभिनय के मामले में जबर्दस्त चुनौती दी। इस युवक का नाम था 'विक्टर बनर्जी'।
विक्टर बनर्जी अभिनय के मामले में इतने कुशल थे कि लगभग हरेक नाटकों में उन्हें श्रेष्ठ अभिनेता के खिताब से नवाजा गया और अमिताभ हमेशा उनसे पीछे रहे...।
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